Saturday 9 February 2013

उम्र की नासमझी

कुछ उम्र की नासमझी थी 
कुछ हमारी भी खुदगर्जी थी!!
जो सब कहते थे सही 
वो कभी हमने माना ही नहीं !!

चमते चाँद को कहते थे सब सितारा 
हम कहते थे उसे खुशियों का पिटारा !!
वो रेत में जलते पाँव से थे डरते 
हम उन्ही राहों पर ही निडर होके चलते !!

वो रात का यूँ ढालना धीरे से
धीमे पाँव सवेरे का यूँ चले आना !!
कहते है लोग इसे
जीवन का ताना बाना !!

हमारी तो समझ थी
कुछ और ही अलग सी!!
हम कहते थे इसे
काले साये का जाने
खुशियों की किरणों का आना !!

नासमझी में ही खुश-ओ -मिजाज़ थे हम
परवाह कब की थी हमने जग की !!
नज़र नज़र के फर्क ने
दुनिया ही थी बदल दी !!

चंद उम्र का फासला ही तो काफी था
वो सिखाते रहे जीवन की धुप-छाव!!
हम बस छाव का पल्ला पकडे
हसते खेलते मस्ती में जीते रहे !!

कुछ उम्र की नासमझी थी
कुछ हमारी भी खुदगर्जी थी!!


~~swati~~

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